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Sunday, December 20, 2015

लेखनी



आज मेरी लेखनी जवाब दे गयी
दर्द मेरी रूह को बेहिसाब दे गयी
क्या प्रकीर्ति स्तब्ध है क्यों धरा न डोल उठी ?
क्या यही पुरुषत्व है खामोश माँ ये बोल उठी ?
है भाव की कमी हूँ शब्द को तड़प रहा
हे विधाता देख मेरा ह्रदय न धड़क रहा
बूँद बूँद धरा की सब आग बन बरस पड़े
जलादे मानवता और वो खाक को तरस पड़े
श्वास को अकाल हो ऐसा तुम्हारा हाल हो
मृत्यु न वरण करे हर पल तुम्हारा साल हो
घटक तुम्हे सड़ा के हर तरह से दुत्कार दें
मृत्यु मांगो मृत्यु जियो ऐसा तुम्हे उपहार दें

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