Powered By Blogger

Tuesday, July 27, 2010

माथापच्ची..........

                                                          विचारोभिव्यक्ति की द्वंद्ता में जीने की कला ही मनुष्य को मनुष्य बनाती है! मैं ऐसा इसलिए मानता हूँ की हर इंसान में वह अकेलापन या वह हमराही जरूर होता है जो उसे प्रत्येक पल आगे बढ़ने को कहता है ! रोज उसकी दिनचर्या शुरू होती है और शाम तक या किसी पहर वह सोचता है काश कुछ अच्छा किया होता तो कुछ अच्छा होता ! योगी से लेकर एक साधारण मनुष्य या फिर एक भिक्छ्क सबके मन में अपूर्णता जरूर होती है ! योगी इश्वर को पाने की व्यर्थ चेष्टा में अपना समय नष्ट करते हैं साधारण मनुष्य जरूरतों में तो भिक्छ्क एक वक़्त की रोटी की मुवस्वरता के लिए दर्जनों के आगे हाथ फैलाता है! क्या उन्हें ये सब करना अच्छा लगता होगा हो सकता है पर उनके मन में कुछ भावनाएं ऐसी भी होंगी जो कभी मरी ही ना हो या फिर उन्हें पूरा ना कर पाने की हताशा में वो ये कर रहे हैं ! योगियों से मुझे विशेष हमदर्दी है वे जो ये खुद कहते हैं की प्रत्येक मनुष्य के अंतर्मन में इश्वर होता है खुद ही नहीं समझ पते हैं ! इसीलिए मैं पूरे तन-मन से हिन्दुस्तानी होते हुए भी विदेशी मन का हूँ .....((दीगर बात ये है की यहाँ  के संस्कृति या सभ्यता की बात मैंने नहीं की है ....( वो हमारे यहाँ से बेहतर ना कहीं है ना कहीं होगी ) )) कभी गया तो नहीं हूँ पर इतना विचार है की वहाँ योगी नहीं भोगी होते हैं ! यह अटल सत्य है की सब कुछ त्याग कर कुछ पाया नही जा सकता है ! पता नहीं पर त्यागी लोग मुझे तिरस्कृत लगते हैं लोग उनकी बातें सुनते तो हैं पर त्याग से नहीं !
                                                   उनका अनुसरण वैसे लोग ही करते हैं जो अपूर्ण होते हैं पर पूर्णता का ढोंग करते हैं ! सब कुछ बोलकर ना बोलने की कला मुझको नहीं आती मैं इशारा तो नहीं कर सकता पर समझा सकता हूँ ! क्या लोग यह मान लेंगे की मैं पागल हूँ जबकि एक दिन पहले ही मैं सामान्य था शायद इस लेख को पढ़ कर मान लें ! अपनी समस्त कला का प्रदर्शन करके एक कलाकार ये नहीं कह सकता की मैं तो अभी सीख रहा हूँ पर कहता है क्यों ? सबकुछ बोलकर कोई ये नहीं कह सकता की मैं गूंगा हूँ या मुझे कुछ आता ही नहीं मेरे एक मित्र को यही दिक्कत है सवाल भी है जवाब भी है पर असंतुष्ट है क्या ऐसे में हर वह व्यक्ति जो उसके सवालों का जवाब दे उसको पूर्ण मानना चाहिए या फिर हममे से किसी ने भी वैसा महसूस किया है या कभी उसकी तरह से सोचा है ! ''स्पष्ट सोच होना वास्तविक मायने में तो असंभव है अगर स्पष्ट या पूर्ण सोच हो जाये तो शायद साम्य की वह स्थिति होती जो सब कुछ शांत कर देती है'' फिर उसके आगे कुछ होने के लिए उत्प्रेरक का इस्तेमाल करना पड़ता है और फिर वही दुनिया जिसको पीछे छोड़ कर आये थे ग़ालिब ! एक लेख लिखने के बाद मुझे एहसास हुआ की इंसान कितना स्वार्थी होता है वो अपना दुःख बांटकर हमदर्द इकठ्ठा करता है ! इन लाइनों से मुझे सीख मिली '' ना रहो निराश ना करो मन को '' ऐसा होना भी चाहिए पर क्या यह विचार उसके मन में आया होगा जो कभी निराश ही ना हुआ है ? मुझे वह स्वर्ग नहीं चाहिए जिसमे दुःख के लिए जगह ना हो वरना मैं सुख मे दुख या दुःख में सुख के लिए तरस जाऊंगा !

                                           अब मुझे समझ नहीं आ रहा है की इस लेख को कैसे समाप्त करूँ अधुरा लेख है फिर भी पूर्णता को लिए है ! समझने को बहुत कुछ है पर समझाने को कुछ नहीं ! हमारी यह विफलता है की हम जैसा सोचते है या मैं जैसा सोचता हूँ वैसा कर नहीं पता ! इसी संसय को हमे छोड़ना होगा ..........क्योंकि दुविधा में दोनों गए माया मिली ना राम ........ तो माया को तो बस में करना असंभव है क्योंकि वो बहुजन की है अतः राम नाम जपना और.........
                                          अपने इन्द्रियों के कौशल का परिचय देते हुए लेख समाप्त कर रहा हूँ और सुझाव दे रहा हूँ ''करो भोग जीतो योग '' तो अब माथापच्ची